पिय आये परदेस ते, गरब होइ जेहि बाल।
सो सँजोग गर्वित तिया, जानत सुकवि रसाल॥1॥
तुव बिछुरत तन नगर में बिरह लुटेरे आइ।
मेरे सुबरन रूप कौ लीन्हौं लूटि बनाइ॥2॥
आयो पिय परदेस ते, तिय बैठी सकुचाइ।
तिरछी आँखिन तें कछू, लखत कनाखि जनाइ॥3॥
गये बीति दिन बिरह के आयी निसि आनंद।
प्रेम फँदी कुमुदिनि भई निरखत ही बृजचंद॥4॥
आवन सुनि घनस्याम की आन देस तें बात।
चपला ह्वै चमकन लग्यौ नेहन हीं को गात॥5॥
सोहत बेदी पीत यों, तिय लिलार अभिराम।
मनु सुर-गुरु को जानि के, ससि दीनो सिर ठाम॥6॥
सूधी पटिया माँग बिनु, माथे केसर खौर।
नेह कियो मनु मेघ तजि, तड़ित चन्द सों दौर॥7॥
यहि बिधि गोरे भाल पै, बेंदी स्वेत लखाय।
मनो अदेवन हित अमी, लेत सुक ससि आय।॥8॥
ढुरै माँग तें भाल लों, लर के मुकुत निहारि।
सुधा बुन्द मनु बाल ससि, पूरत तम हिय फारि॥9॥
मुकुत भये घर खोइ के, बैठे कानन आय।
अब घर खेवत और के, कीजे कौन उपाय॥10॥