अंधकूप मे जग पड़ी, दया करम बस आय।
बुड़त लई निकासि कर, गुरु गुण ज्ञान गहाय॥1॥
हरि रस माते जे रहें, तीनको मतो अगाध।
त्रिभुवन की संपति दया, तृन सं जानत साध॥2॥
ऐंचा-खैंची करत है, अपनी अपनी ओर ।
अब की बेर उबार लो, त्रिभुवन बंदी छोर ॥3॥
धूप हरै छाया करै, भोजन को फल देत ।
सरनाये की करत हैं, सब काहू पर हेत॥4॥
ठग पापी कपटी कुटिल, ये लच्छन मोही माहि।
जैसी तैसी तेरिही, अरु काहू को नाहि॥5॥